72 Hoorain review: 72 हूरों की चाह में मौत चुनी, धर्म और आतंक पर प्रहार करती फिल्म, पर ‘वो’ असर नहीं कर पाई
आतंक इस दुनिया का वो काला सच है, जिसने हमेशा बेगुनाहों को अपनी गिरफ्त में लिया है. सालों से धर्म के नाम पर लोगों को आतंक की राह पर धकेला जा रहा है.
और ऐसे ही 2 आतंकियों की कहानी है ’72 हूरें’, जो जिहाद के राह पर चल मासूमों की जान लेते हैं और उम्मीद लगाते हैं कि उन्हें ‘अल्लाह का नेक काम कर सबाब मिलेगा’. मरने के बाद जन्नत में 72 हूरें उनका इंतजार कर रही होंगी. इन्हीं 72 हूरों की रूपहली कहानी के पीछे का सच बताती है निर्देशक संजय पूरण सिंह चौहान की ये फिल्म ’72 हूरें’. आइए बताते हैं कैसी है ये फिल्म.
कहानी: यह कहानी हाकिम (पवन मल्होत्रा) और बिलाल (आमिर बशीर) नाम के दो पाकिस्तानी लड़कों की है, जो भारत में मुंबई के गेट वे ऑफ इंडिया पर आत्मघाती हमला करने आते हैं. ये दोनों धर्म और जेहाद के नाम पर मौलाना सादिक की बातों से प्रभावित हो आतंक का रास्ता अपनाते हैं. फिल्म की शुरुआत में मोलाना सादिक अपने बयान से करते हैं जिसमें वो बताते हैं कि जन्नत में शहादत के बाद पहुंचने वालों का कैसे स्वागत होगा. 72 कुवांरी हूरें उनके आसपास होंगी, मरने के बाद उनमें 40 मर्दों के बराबर ताकत होगी… लेकिन जब ये आतंकी मर जाते हैं तो उनका जन्नत की इन हूरों तक पहुंचने का इंतजार शुरू होता है.
निर्देशक संजय पूरण सिंह चौहान की ये फिल्म दरअसल आतंकियों का ब्रेनवॉश करने की कोशिश और उस प्रक्रिया को दिखाने की कोशिश करती है. ये पूरी फिल्म ब्लैक ऐंड वाइट है, लेकिन बीच-बीच में कुछ चीजें रंगीन नजर आती हैं. ऐसे सीन इक्के-दुक्के ही हैं. ब्लैक-ऐंड वाइट अंदाज में चलती इस फिल्म में आतंकी हमले के सीन रूह कंपा देने वाले हैं. कैसे हंसते-खेलते लोग अचानक लाशों में तबदील हो जाता हैं. एक बच्चे का वॉकर जिसपर कुछ देर पहले किलकारी सुनाई दे रही थी, अगले ही सीन में ब्लास्ट के बाद वो वॉकर बस लोहे का जला हुआ ढांचा रह जाता है. चारों तरह लाशें, जले-कटे आधे पड़े शरीर और बीच में नजर आता एक रंगीन पैर… फिल्म में आतंक का खौफ दिखाने वाला माहौल इतना वीभत्स है कि शायद कुछ सीन्स तो आप देख भी न पाएं.
लेकिन अच्छे मंतव्य से और आतंक का चेहरा उघाड़ती ये फिल्म मनोरंजर के पैमाने पर खरी नहीं उतरती. ये फिल्म बहुत कुछ बताने-करने के बाद भी आपको खुद से जोड़ नहीं पाती. दरअसल फिल्म के पहले ही सीन से आपको पता है कि इन आतंकियों की ‘सपनों की जन्नत’ का असली हश्र क्या होगा. ऐसे में आपको कुछ भी चौंकाने वाला या आंखे खोलने वाला नहीं लगता. फिल्म का पहला हिस्सा ठीक हो, जो कहानी को धीरे-धीरे बढ़ाता है. लेकिन सेकंड हाफ में कहानी फैल जाती है. बैकग्राउंड म्यूजिक कई बार बहुत तेज हो जाता है और कई सीन्स बेवजह धीमे हैं. इतने धीमे कि आप आपना संयम खो देते हैं.
पवन मल्होत्रा और आमिर बशीर इस फिल्म के 2 ही अहम पात्र हैं जो पूरी फिल्म में बोलते नजर आ रहे हैं. ऐसे में ये फिल्म बस इन दो एक्टरों का ही मोनोलॉग है. हालांकि दोनों ही एक्टरों ने फिल्म में शानदार काम किया है. पवन मल्होत्रा के किरदार में आपको कई सारे शेड्स भी नजर आएंगे. फिल्म में बीच में ‘पंचायत’ वेब सीरीज के विनोद यानी अशोक पाठक भी आते हैं, पर इस फिल्म में वो काफी नकली लगे हैं.
’72 हूरों’ की सबसे अच्छी बात ये है कि इस फिल्म में आपको कुछ भी साबित नहीं कर रही है. बल्कि ये फिल्म इंसानियत की, मानवता की बात करती है. फिल्म के लेखक अजय पांडे और निर्देशक दोनों ने ये कोशिश की है कि किसी की भावनाएं आहत न हों. ये फिल्म आपको कई जगह किसी डॉक्यूमेंट्री जैसी लगने लगती है. फिल्म का संदेश बढ़िया है ‘कि मासूमों को मारने वालों को कोई जन्नत या कोई हूरें नहीं मिलतीं.’ लेकिन इसी संदेश को एक दमदार कहानी के साथ रखा जाता तो और भी अच्छा होता.